विवेक बनियाल, (स्वतंत्र पत्रकार)
उत्तराखंड में मनाया जाने वाला लोकपर्व ‘हरेला’ सावन के आने का संदेश है। हरेला का मतलब है हरियाली। इस पर्व के पीछे फसल लहलहाने की कामना है, खुशहाली का आशीष है, बुजुर्गों का आर्शीवाद है। 16 जुलाई को उत्तराखंड में भाव, भक्ति के साथ हरेला मनाया गया। गाजे-बाजे के साथ इस दिन पौधे लगाए जाते हैं। माना जाता है कि इस दिन एक टूटी टहनी भी मिट्टी में बो दी, तो वो भी खूब पनप जाएगी।
देवभूमि उत्तराखंड में बरसात के मौसम में हरियाली का प्रतीक हरेला त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। यह लोकपर्व सावन के आने का संदेश है। उत्तराखंड के गांवों से देश-विदेश में बसे लोग चिट्ठियों के लिए जरिए हरेला के तिनकों को आशीष के तौर पर भेजते हैं।
पर्यावरण से जुड़ा है यह त्योहार :
मूलतौर पर यह त्यौहार उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में मनाया जाता है। इस दिन कान के पीछे हरेले के तिनके रखे लोग नजर आते हैं। बीजों के संरक्षण, खुशहाल पर्यावरण को भाव और भक्ति से जोड़ते हुए इस पर्व को पूर्वजों ने आगे पीढ़ियों तक पहुंचाया। हरेला पर्व के समय शिव और पार्वती की पूजा का विधान है।
इसलिए कहते हैं इस पर्व को ‘हरेला’
उत्तराखंड में सावन मास की शुरुआत हरेला पर्व से होती है। यह तारीख 16 जुलाई के दिन आगे-पीछे रहती है। इस दिन सूर्य कर्क राशि में प्रवेश करते हैं। हरेला पर्व से 9 दिन पहले हर घर में मिट्टी या बांस की बनी टोकरी में हरेला बोया जाता है। टोकरी में एक परत मिट्टी की, दूसरी परत कोई भी सात अनाज जैसे गेहूं, सरसों, जौं, मक्का, मसूर, गहत, मास की बिछाई जाती है। दोनों की तीन-चार परत तैयार कर टोकरी को छाया में रख दिया जाता है। चौथे-पांचवें दिन इसकी गुड़ाई भी की जाती है। 9 दिन में इस टोकरी में अनाज की बाली आ जाती हैं। इसी को हरेला कहते हैं। माना जाता है कि जितनी ज्यादा बालियां, उतनी अच्छी फसल।
तीन बार मनाया जाता है हरेला :
हरे-भरे त्योहार के साथ पुए, सिंगल (कुमाऊं के मीठे व्यंजन), उड़द की दाल के बड़े, खीर, उड़द दाल की भरी पूड़ी का स्वाद भी है। इन दिन जगह जगह लोग पेड़ लगाते हैं। हरेला के पर्व तो साल में तीन बार मनाया जाता है, पहला चैत्र, दूसरा सावन और तीसरी बार आश्विन मास में मनाया जाता है लेकिन सावन मास में आने वाले हरेला का विशेष महत्व है।
कैसे बनाते हैं यह पर्व :
हरेला यानी हरियाली, पहाड़ कुदरत के कितना करीब है, इस पर्व में झलकता है। उत्तराखंड में सावन की पहली तिथि को यह पर्व मनाया जाता है। कुमाऊंनी संस्कृति विशेषज्ञ बताते हैं कि पर्व से 9 दिन पहले घरों में मिट्टी या बांस की बनी टोकरी में हरेला बोया जाता है। टोकरी में एक परत मिट्टी की, दूसरी परत में कोई भी सात अनाज जैसे गेहूं, सरसों, जौं, मक्का, मसूर, पहाड़ी दाल भट्ट बिछाई जाती है। इसी तरह दोनों की तीन-चार परत तैयार कर टोकरी को कहीं छाया में रख दिया जाता है। त्योहार तक टोकरी में अनाज की बाली आ जाती है। यही हरेला है। बताते हैं कि एक आशीर्वाद के साथ घर के बुजुर्ग सबके सिर पर हरेला के तिनके रखते हैं, ‘जी रया जागि रया, आकाश जस उच्च, धरती जस चाकव है जया। स्यावै क जस बुद्धि, सूरज जस तराण है जौ। सिल पिसी भात खाया, जांठि टेकि भैर जया। दूब जस फैलि जया।’ यानी जीते रहो, जागृत रहो। आकाश जैसे उच्च, धरती जैसा विस्तार हो। सियार की तरह बुद्धि हो, सूरज की तरह चमकते रहो। इतनी उम्र हो कि चावल भी सिल पर पीसकर खाओ और लाठी टेक कर बाहर जाओ। दूब की तरह हर जगह फैल जाओ।

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